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Friday, June 18, 2010

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जाना ससुराल बुढ़ापे में 

प्रभाकर चौबे 

बुढ़ापे में कभी ससुराल गए हैं आप। गए हों तो सोचिए। बुढ़ापे में ससुराल जाना अस्पताल में भर्ती हुए सा लगता है। ससुराल में बुढ़ऊ दामाद केवल लाला जी और जीजा जी ही नहीं रहते न। फूफा, मौसिया, नाना का तमगा भी लटकने लगता है। फूफा कहने वाले, मौसिया कहने वाले, नाना कहने वाले जुड़ जाते हैं। और इस फूफा, मौसिया के संबोधनों के बीच लालाजी संबोधन ऐसे खो जाता है जैसे राख के नीचे अंगार। और बुढ़ऊ दामाद के कान लालाजी सुनने तरसते हैं, तब कोई आकर कहता है- फूफा, चाय पी लो। लगता है कम्पाउंडर ने इंजेक्शन टोंच दिया। फिर कोई आकर कह जाएगा- नाना, तम्बाखू खा लो, रखी है। लगता है अस्पताल की आया ने सफाई करते समय जोर से स्टूल पटका हो। अरे तुम लोग लालाजी नहीं बोल सकते। ठीक है कि फूफा, मौसिया बन गए हैं किन्तु हैं तो इसी घर के दामाद। पुराना संबोधन लालाजी चलने दो। हम लोग तो भइया एक ही सम्बोधन को पकड़े रहने के आदी हैं। एक बार नेता जब भइया कहलाने लगता है तब अर्थी के जुलूस में भी भइया ही कहलाता है। इस लालाजी में संजीवनी है जो बुझी-बुझी आंखों में भी ज्योति चमका दे। लालाजी सुनकर बिस्तर पकड़ लिया बुढ़ऊ दामाद भी एक बार तो उठकर चल पड़ेगा। लालाजी सुनकर ऐसा लगता है जैसे अभी-अभी भांवरों से उठे हैं। पाणिग्रहण अभीच निपटा है। अभी-अभी उसकी मांग में हमने सिंदूर भराई की रस्म अदा की है। अभी-अभी सालियों ने जूते चुराए हैं। अभी-अभी मंडप में पांच वचन हारे हैं। अभी कंगन छुड़ाई का खेल खेला है। और उन्हें अंक में भर लेने का सर्टिफिकेट मिला है। कहां वह लालाजी का मधुर संबोधन और कहां वह फूफा जी, मौसिया जी का संबोधन। लगता है मोटर टॉप गियर में चलते-चलते फर्स्ट गियर में आ गई- टें-टें-टें कर रही है। जहां ससुराल में महीनों गुजार देने का मन होता था अब लगता है जैसे भिक्षुगृह में आ गए हैं। तुरंत भागो। सालियां जो जीजाजी की सेवा की दौड़ के लिए काम्पीटीशन करती थी अब दौड़ की ट्रेक से बाहर हो गई हैं। जो मधुमास उड़ेला करती थीं कि लो जीजाजी चाय वे अब अपने सुपुत्रों से कहती हैं कि जा मौसिया को चाय दे आ। साली के सुपुत्र को चाय का कप लेकर आते हुए देखो तो लगता है कि रिटायरमेंट का नोटिस आ रहा है। और बुढ़ऊ दामाद को लगता है जैसे पूरे रिजर्व कोच डिब्बे में एक बर्थ मांगने की भाग दौड़कर करते रहे। जिस कोच में गए कोच के कंडक्टर ने नो बर्थ कहकर भगा दिया। क्षण-क्षण में आकर चुटकी लेने वाली साली अब खांसती-फूलती आ जाती है- जीजाजी तीन दिन से खांसी परेशान कर रही है। कोई अच्छी-सी दवा बताओ। और जीजा जी को लगता है जैसे किसी खैराती अस्पताल के वार्ड ब्वाय हैं। हर कोई आकर नाक, कान, गला एक्सरे डिपार्टमेंट का पता पूछ रहा है। पहले साली कहती थी- अरे जीजा जी, क्या दिनभर पढ़ते रहते हो, कुछ बातें भी करो। अब कहती हैं- जीजाजी रामायण पढ़कर सुनाओ न, तुम्हारा गला अच्छा है। उधर से दूसरी साली आकर अपने नन्हें को गोद में डालती हुई कहती है- जीजाजी, जरा इसे सम्हालना, मैं कपड़े धो लूं। और बुढ़ऊ दामाद सालियों के बच्चों के पालना बन जाते हैं। उधर सलहज अपने लाड़ले से कहती है- जा फूफा के पास, कहानी सुनाएंगे। एक-एक कर ससुराली बच्चे आते हैं। बुढ़ऊ दामाद शिशु गृह के अध्यापक की तरह ट्रीटमेंट पाते हैं। बुढ़ापे में ससुराल क्या गए सीधे निगरानीशुदा अपराधी बन गए। पहले दामाद के मन की होती थी अब ससुराल वालों के मन की होती है। पहले पेट भरा रहे तब भी खाओ। कुछ नहीं तो पान ही लो। अब पूछ-पूछ कर खाओ- क्यों भाई दही खा लें। नुकसान तो नहीं करेगा। सलहज कहेगी- उनसे पूछ लो। उनसे यानि कि उनके मिस्टर यानि कि हमारे साले साहब से। जो साला हुकुम का गुलाम बना हाथ बांधे आदेश की प्रतीक्षा करता था अब राय देने के काबिल हो गया है। अब उनसे पूछें। खूब दिन दिखाया। उधर से आदेश आता है- दाल ज्यादा न खाना जीजाजी, गरिष्ठ होती है। बुढ़ऊ दामाद पूछते हैं-तो लौकी की सब्जी खा लें। साली - नहीं, आप तो सूखी रोटी खाओ। पालक बना दिया है। वह भी ले लेना। वाह रे समय। भर-भर के प्लेट मिठाई देने वाली अब सूखी रोटी का हुक्म देती है। लगता है ससुराल में सारे डॉक्टर ही डॉक्टर हो गए हैं। और मरीज केवल एक हैं बुढ़ऊ दामाद। जिसे देखो वही मरीज की जांच करने हाजिर हो जाता है। अब कैसा लग रहा है जीजाजी। जिसे देखो वही एक डोज देकर चला जाता है। हर कोई पोस्टमार्टम करने लगता है। एक पूछेगा- किस गाड़ी से आए। दामाद- जनता से। 'जनता से नहीं आना था'- वह कहेगा भीड़ रहती है। दूसरा पूछेगा- फोन क्यों नहीं किया। तीसरा कहेगा- अधिक यात्रा मत किया करो। यानि साले इनडायरेक्टली बुढ़ऊ दामाद का ससुराल आना पसंद नहीं कर रहे हैं। साफ नहीं कहेंगे। पहले पत्र पर पत्र लिखते थे कि बहुत दिनों से आए नहीं। अब बैरंग लेटर की तरह भारी लगने लगे हैं, बुढ़ऊ दामाद। क्या दिन आ गए जी। पहले पैरपड़ाई मिलती थी, अब पैर पड़ाई देनी पड़ती है। साली के लड़कों को दो। सलहज के बच्चों को दो। उनके भी बच्चे हो गए हों तो उन्हें भी दो। वापस जाने के दिन पर सब ऐसे खुश हो जाते हैं जैसे पतझड़ बीत रहे होने पर प्रकृति प्रसन्न होती है। बड़ा बुरा समय आ जाता है। पहले ससुराल अकेले जाना अच्छा लगता था। वे साथ रहती थीं तो लगता था उपग्रह की आंख साथ हैं- हर गतिविधि पर नजर रखती थीं। मेटल डिटेक्टर की तरह सूक्ष्म से सूक्ष्म हर बात को ताड़ लेती थीं। और कम्प्यूटर की तरह सब कुछ उगल देती थीं कि ये तो ऐसे हैं, वैसे हैं। इन्हें यह नहीं सूझता, वह नहीं सूझता। इन्हें लोग बेवकूफ बनाते हैं। और दामाद बाबू को बिना सफाई का मौका दिए एकदम ससुराली जूरियों द्वारा सख्त से सख्त सजा सुना दी जाती थी कि अब से ऐसा नहीं करोगे। तो पहले दामाद बाबू अकेले ही जाने में अच्छा महसूस करते थे। अब बुढ़ापे में उनके साथ ससुराल जाना अच्छा लगता है। अब वे उस टेपरिकार्ड की तरह हैं जो आधुनिक वीडियो के सामने फीका पड़ गया है। लेकिन उनकी 'वे' अब साथ जाना नहीं चाहती। बुढ़ऊ दामाद पुराने टेप रिकार्डर हो गए हैं। इससे स्लोमोशन में विनय पत्रिका ही टेप हो सकती है।
-शुक्ला प्रोविजन के पास, रोहिणीपुरम-2,
रायपुर-292001 (छ.ग.)

 

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